5)-रफ्तार
डॉ कलम श्री विभा सी तैलंग
अब हम जीवन की दौड़ में बहुत तेज दौड़ने लगे हैं
इसीलिए
खिड़की के बाहर
रफ्तार से दौड़ते हुए
पेड़ों इमारतों को पीछे छोड़ते हुए
सूरज को देखना
अब हमारे लिए
कोई मायने नहीं रखता!
6)-हमारी आंखों में ख्वाब है, विषाद भी, पीड़ा भी
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज की वो सुबह
मोर की पीयू पीयू से हमेशा की तरह
आज भी नींद खुली
हास्टल के कमरे से बाहर झांका
कुछ मोर-मोरनी पंख फैलाए नाच रहे थे
अद्भुत नजारा था,
गिलहरियों की दौड़ जामुन के पेड़
की टहनियों में लटकी
जामुन के फल को चखने
कुतरने की थी, तो कुछ
हमारी खिड़कियों पर,
मूँगफली की आस में थीं !
हमें ची-ची कह पुकार रही थीं!
हमनें हमेशा की तरह अपनी हथेलियों पर
गुल्लीवर की तरह बिठा कर भोजन कराया!
सुबह सवेरे से हल्की-फुल्की बूंदा बांदी के बाद। आसमान खुल सा गया था,
जमीन और पेड़ पत्ते गिले से थे!
सतरंगी इन्द्रधनुष आसमान को स्वप्निल छटा दे रही थी !
आज 15 अगस्त की सुबह
हर साल की तरह कॉलेज में
प्रिन्सिपल महोदया के झंडातोलन से,
राष्ट्रगान व भाषण से सम्पन्न हुआ !
मैं कुछ मुँह मीठा कर,
हास्टल के टीवी कमरे में बैठ कर
15 अगस्त,
स्वतंत्रता दिवस के ख़बरों को देख कर
मन कुछ उद्विग्न था !
हर वर्ष की तरह
स्वतंत्रता दिवस का
फिर आगमन हुआ था,
लाल किला के प्राचीर से
उम्मीदें जगाई गई
सपने जगाए गए,
हर साल की तरह
कुछ पुराना गिनाया गया
कुछ नया बताया गया
कुछ सच था, कुछ अर्धसत्य था
कुछ कपोल-कल्पना, हमेशा की तरह
जिसे हम हाइpothetical कहते हैं,
यानि सम्भावित बातें,
बड़ी बड़ी सम्भावनाएँ जतायी गई
छोटे-छोटे कदम भी सुझाए गए!
य़ह "नया भारतवाली बात थी',
युवा भारतवालीं,यंग इंडिया,
जवान हिन्दुस्तानवालीं'.....
पर इस घोषणाओं के पिटारे में
महिला, पुरुष,बच्चे,बूढे,
अर्द्धनारी,अर्द्धपुरुष
सबके लिए दिवास्वप्न के जुमले थे!
और फिर मीडिया की paricharchayein,
यूटोपिया की परिभाषा पर विचार-विमर्श
हम सब देख रहे थे टीवी पर!
उगते सूरज की लालिमा
मात्र आँखों को सेंकती ही नहीं
उसकी अरुणिमा ऊर्जा देती है
फिज़ा में हौले-सी बहती,
बयार के स्पर्श का एहसास,
मेरे अंर्तमन को,
तर करता गया!
आज क्या है य़ह रूमानी दस्तक,
जो वक़्त के करवट बदलने का
आगाज-सा लगता है
य़ह पूर्वाभास
मेरी नायिकाओं में
भीगी मिट्टी की
सोंधी खुशबु की भाँति
समाती जा रही हैं,
रोमांचित हो गई हूँ में,
वर्तमान का पल,
कल
इतिहास बन जाए,
सोचती हूँ,
उसे शब्दों और लफ़्ज़ों के
सांचे में ढाल कर
बिखरने से बचा लूँ!
वक़्त,
मुट्ठी में बंद रेत की भाँति
फिसल जाए,
उस से पहले
बदलते हवाओं के
रुख को सम्भाल दूँ!
सोचती हूँ,आज कुछ नया करूँ,
सब को साथ लेकर
"एक नए पहल" का ऐलान कर दूँ,
य़ह ईज़ाद "आज़ादी का ",
दूसरी आज़ादी की लड़ाई का आगाज,
अनूठे और नए अंदाज में
नया भारत,इंडिया,हिंदुस्तान के लिए,
य़ह कन्हैया की आज़ादी नहीं
तमाम बुराइयों के जड़
अशिक्षा से आज़ादी
बेरोजगारी से आज़ादी
कुरीतियों से आज़ादी
अपने आसपास होनेवाली
हर सामाजिक विकारों से आज़ादी
असामाजिक दुराग्रही, आतंकी
अपराधों से आज़ादी
नाकामियों से आज़ादी
उपलब्धियों के अवरोधकों से आज़ादी
गिनती अनगिनत है,
पर बेड़ियों के संग आगे बढ़ने की आज़ादी,
व्यवस्था में सुधार की आज़ादी
इस साल क्या नया आयाम जोड़ सके
आधुनिकीकरण के दौर में
पारंपारिक का परित्याग किए बिना
उसे परिष्कृत कर
आगे बढ़ने की आज़ादी!
ओ ! विषाद की आत्मा,
इस लोक में मानवी आसुओं
का कोई अंत भी है?
अथवा कि उन विशाल आँखों में
अब भी वैसे ही पहाड़ियों
और सूने आकाश झांकते हैं?
उन रहस्यमयी आँखों में क्या था?
अभी वे आँखें क्या देख रहीं हैं??
उलझन, तड़पन,बिलखन,वेदना,
और
इन सब को ढंकती
बेबसी कि वह चादर,
जो नियति का रूप लिए
हमारे समक्ष खड़ी थी!
ये वही नयन जिनमें,
मैं अपने सुख का प्रतिबिंब
देखा करती थी!
उसकी सीमाएं आईने से
कहीं ज्यादा व्यापक थीं!
मुझे आईना नहीं अच्छा लगता,
जोकि सिर्फ सतही प्रतिबिंब
दर्शाता है!
तुम्हारे नयनों में नहीं होती!
ये वही नयन हैं,
जिनमें खुद को में देखा करती थीं!
और खुद से संलग्न सारे सपनों को!
इसीलिए शायद मैं अपने सपनों को
मरने नहीं देना चाहती,
क्योंकि वे तुम्हारी आँखों से देखे थे!
तुम्हारी अभिव्यक्ति के लिए,
तुम्हारे अधर भले ही ना हिले हों,
मगर तुम्हारे नेत्र-ज्योति
के पीछे छिपा,
वह अंधकारयुक्त संसार
मेरी दृष्टिपथ के बाहर नहीं!
उस क्षण होठों की खामोशी में
जो छिप गया था,
वह नयनों की राह बाहर निकल कर
मेरे हृदय मेँ प्रवेश कर गया!
तब से लेकर आज तक,
यानि अभी तक,
कभी नहीं मिली वह रातें
जब मै चैन से सोया करती थीं!
काश!कि तुम भी देख पाते
अपनी उस नयन भंगिमा को
उस में प्रयुक्त अनेकानेक
भावों के जटिल संगम को
जिनको सुलझाने की चाह में
मैं खुद उलझती चली जा रही हूं!
प्रकृति के गोद में बहती
नदियों की भाँति
रंगीन वादियों के स्वर्गनुमा
आगोश में
पर्वतों के पीछे मनोरम पर्वत शिखरों
और उगते सूर्य के तेज के समान
दिव्य भावनाओं
को जागृत करनेवाली
दैवीय शक्तियों
से ऊर्जावान हो
प्रकृति का संरक्षण करते हुए,
प्रकृति के नियमों को धारण कर
उसके सहयोग और उपयोग से
नए उर्जा का निर्माण करें,
अंदरूनी भी,
और बाहरी भी!
वो आज़ादी जिसके हर आगाज
हर कदम की आहट,
अंदर तक दिल को प्रसन्नचित्त करें
और
कोई नया कदम बढ़ाने को प्रेरित भी!
7)- समझौता: जीवन में,जीवन से
डॉ कलम श्री विभा सी तैलंग
बेटियाँ खास होती हैं!
बेटियां खास होनी ही चाहिए!
बेटियाँ शक्ति रूप हैं!
उन्हें सशक्त होना चाहिए!
बेटियाँ जीवनदायिनी है !
उन्हें ममतामयी होना चाहिए!
बेटियों को सर्वगुण संपन्न बनाना है!
य़ह दायित्व किसने किसको दिया?
इसकी परिभाषा किसने बनाई?
इसके मापदंड किसने बनाए?
कौन तय करता है समाज की
स्वाभाविक प्रक्रियाओं को?
सामाजिक परिस्थितियों को?
जो हर दस कोस बाद बदली हुई
दिखती हैं खान-पान, रहन-सहन
तौर तरीके,बोली-जुबान में !
किसने चाहा उसकी मन की सुनना,
किसने चाहा उसकी चाहत क्या है?
देश हमारा स्वर्ग सरीखा,
इसका मान बढ़ाना है!
पर अपना और अपनों से प्यारा,
दुनिया में कौन हमारा है?
मान माँ पिता का बढ़ाउ तो,
क्या देश का मान बढ़ता है?
तिरंगे का गुणगान गाउ तो,
परिवार किनारे हो जाता है?
य़ह लिखा जब बच्ची थी
"क्यों बिटिया जन्म निभाना है?"
क्या निभाना शब्द समझौता है?
क्या सहना शब्द समझौता है?
परंपराओं की ओढ़नी से,
सिर ढके घूंघट की आड़ से
तकना समझौता है!?
घर की चक्की झाड़ बुहारी
स्कूल के बस्ते पर हो भारी!
तो मन के चाहना को
सर्वोपरि रखना
क्या य़ह हरकत बगावत है?
या समझौता है?
मन के उमंगों को,
छलांगों को
लक्ष्यों को
महत्वाकांक्षाओं को,
दरकिनार रखना!
मन की ना करना,
मन की ना बोलना
मन की ना खाना,
मन की ना पहनना!
मन मार कर जीना!
और इसे जीने की
आदत मान लेना!
क्या य़ह हरकत पलायन है?
परिस्थितियों से?
बलिदान है औरों के प्रति
अपनों के लिए जीना कहकर
या इसे त्याग मान कर?
या फिर य़ह समझौता है?
पैरों के पायल जब गूँजी,
हाथों की चूडिय़ां जब खनकी,
हँसी की खिलखिलाहट से तंग आयी
"रूठी माँ " को समझाना,
क्या य़ह भी समझौता है?
ऊँची आवाज़ ना देना
य़ह है बिगड़े बोल बगावत के!
किसी की बदतमीजी पर ना लड़े
ना थप्पड़ वापिस मारो,
ना बचाव में शोर करो,
चिल्लम चिल्ली, ना पुलिसगिरी
चुप रह कर नज़रअंदाज़ करो !
कोर्ट, केस, कचहरी के चक्कर से परहेज़,
जेब कटने से बचाएगा,वर्ना
सालों चप्पल घिस कर भी
ना हाथ सोल्यूशन आएगा!
कोर्ट समझौता करवायेंगे,
पूछेंगे बड़ों ने नहीं रोका?
ना समझाया तुम्हें?
एड़ियां रगड़ भी
समझौता ही पल्ले आएगा!
क्या सहनशीलता की क्षमता ही उसे
सर्वगुण संपन्न बनाता है?
क्या समझौता करना
उसको
जीवन में
केवल झुकना ही
सि
खलाता है?
समझौता पसंद की पढ़ाई में!
समझौता पसंद की सगाई में!
समझौता पसंद के कॉलेज
के चुनाव में !
महिला कॉलेज
हो तो सही!
अपना शहर हो तो भला!
समझौता पसंद के शहर में
पसंद के रहन सहन में,
कपड़े आधुनिक माडर्न हों
या पुरातन तालिबानी
मोबाइल,कंप्युटर,स्कूटी,गाड़ी
चलानी आए तो भला
उसके मॉडल के,
कंपनी के चुनाव में
विविधता में समझौता
नौकरी,शादी,स्वयंवर
चुनाव के सफरनामा में
समझौते की परिभाषा को
पारिभाषित कर लें!
एक मापदंड तय कर लें तो
जीना आसान हो जाएगा
पर फिर हर सामाजिक वर्ग
हर क्षेत्र,हर धर्म, हर रुचि
हर प्रदेश व हर देश और
विषय वस्तु की पृष्ठभूमि के अनुसार
व्यवहार की अपेक्षाएं हैं बेटियों से?
जोकि समझौतों की पराकाष्ठाऔ
को भी तय और स्थिर करता है!
जीवन के सफरनामा में,
अगर समझौते की परिभाषा
को तय भी कर लें सोचो
जीना आसान हो जाएगा!
पर फिर भी क्या
बेटों के लिए इसके मापदंड अलग
और बेटियों के लिए अलग ना होंगे?
यहाँ बहुओं की बात तो क्या कहें?
पर आखिर बहू भी,बेटी ही होती है!
उन दामादजी की तरह
घर के जो बेटे समान होते हैं l
हर सामाजिक वर्ग,हर लिंग के
हर वर्ग के हर रुचि के
हर प्रदेश के,देश भर में
विषय वस्तु की पृष्ठभूमि के अनुसार
व्यवहार की अपेक्षाएं हैं बेटियों से?
जोकि समझौतों की पराकाष्ठाऔ
को भी तय करता है!
बेटियों के लिए अलग
बेटों के लिए अलग!
बराबरी का दर्जा तो तब हो
जब हमारी उम्मीदों के दबावों से
बेटियों के स्वाभिमान पर आंच ना आए
और शांति सौहार्दता रिश्तों की भी बनी रहे!
य़ह ठीक ऐसे ही है
जैसे सरकार पेट्रोल, डीजल
की कीमत बढ़ाए,
और देश में सौहार्दता बनी रहे!
डॉ कलम श्री विभा सी तैलंग